काली स्याही: सत्ता छिनने की खीज या जनता के नाम पर किया गया नया पाखंड?
काली स्याही: सत्ता छिनने की खीज या जनता के नाम पर किया गया नया पाखंड?
स्याही फेंकी गई, सभापति पर नहीं बल्कि उस लोकतंत्र पर जो पहले ही गुटबाजी, लालच और स्वार्थ के कीचड़ में डूब चुका है। अब सवाल यह नहीं है कि नगर परिषद की बैठक में हंगामा क्यों हुआ। सवाल यह है कि इस हंगामे में सच्चा जन-हित कहां है?
जो साढ़े चार साल तक सत्ता के साथ रहकर तालियां बजा रहे थे, वो अचानक इतने ईमानदार कैसे हो गए? नगर परिषद की मौजूदा सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव जब गिर गया, तो उसका जवाब 24 पार्षदों ने इस्तीफा देकर दिया। और जब वह भी राजनीतिक जंग नहीं जीत पाया तो बारी आई नाटकीय विरोध प्रदर्शन की यानि काली स्याही की। लेकिन काली स्याही की यह घटना एक बहुत बड़ा सवाल छोड़ गई है कि क्या यह स्याही वास्तव में जनता के दर्द की प्रतिध्वनि थी? या फिर वो सत्ता खो देने की खीज थी, जो अब बदले की भाषा में बाहर आ रही है?
जनता के लिए, या सत्ता की तिकड़म के लिए?
चार साल तक चुपचाप साथ चलने वाले पार्षदों को न कभी बोर्ड की कार्यशैली गलत लगी न कभी विकास योजनाओं पर सवाल उठे न ही कभी उन्होंने इस्तीफा देने की कोई नीयत दिखाई। तो अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि इस्तीफे भी हो रहे हैं, बैठक में हंगामे भी हो रहे हैं, और स्याही से "जनता के हित" की बातें भी उछाली जा रही हैं?
राजनीतिक स्वार्थ की चाल में फंसती शहरी व्यवस्था
नागौर नगर परिषद इस वक्त दो ध्रुवों में बंटी है। एक ओर सत्ता में बनी रहने की जिद, दूसरी ओर सत्ता हथियाने की हड़बड़ी! बीच में अगर कोई वाकई पिस रहा है तो वो है शहर का आम नागरिक, जिसने ना तो कभी स्याही फेंकी, ना हंगामा किया, बस उम्मीद की कि कोई उसका नाला, सड़क, या लाइट का मामला सुलझा देगा।
वक्त है जनता की आंखों में झांकने का, ना कि स्याही फेंकने का, अगर विरोध करना है, तो सदन में शब्दों से करो। अगर विकास की चिंता है, तो कार्य से दिखाओ। अगर ईमानदारी से राजनीति करनी है, तो सत्ता में रहने के दौरान भी सवाल उठाओ, सिर्फ जब कुर्सी छिन जाए, तब नहीं।











