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गुरुवार, 31 जुलाई 2025

जुलाई 31, 2025

काली स्याही: सत्ता छिनने की खीज या जनता के नाम पर किया गया नया पाखंड?

काली स्याही: सत्ता छिनने की खीज या जनता के नाम पर किया गया नया पाखंड?



स्याही फेंकी गई, सभापति पर नहीं बल्कि उस लोकतंत्र पर जो पहले ही गुटबाजी, लालच और स्वार्थ के कीचड़ में डूब चुका है। अब सवाल यह नहीं है कि नगर परिषद की बैठक में हंगामा क्यों हुआ। सवाल यह है कि इस हंगामे में सच्चा जन-हित कहां है?



जो साढ़े चार साल तक सत्ता के साथ रहकर तालियां बजा रहे थे, वो अचानक इतने ईमानदार कैसे हो गए? नगर परिषद की मौजूदा सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव जब गिर गया, तो उसका जवाब 24 पार्षदों ने इस्तीफा देकर दिया। और जब वह भी राजनीतिक जंग नहीं जीत पाया तो बारी आई नाटकीय विरोध प्रदर्शन की यानि काली स्याही की। लेकिन काली स्याही की यह घटना एक बहुत बड़ा सवाल छोड़ गई है कि क्या यह स्याही वास्तव में जनता के दर्द की प्रतिध्वनि थी? या फिर वो सत्ता खो देने की खीज थी, जो अब बदले की भाषा में बाहर आ रही है?


 

जनता के लिए, या सत्ता की तिकड़म के लिए?

चार साल तक चुपचाप साथ चलने वाले पार्षदों को न कभी बोर्ड की कार्यशैली गलत लगी न कभी विकास योजनाओं पर सवाल उठे न ही कभी उन्होंने इस्तीफा देने की कोई नीयत दिखाई। तो अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि इस्तीफे भी हो रहे हैं, बैठक में हंगामे भी हो रहे हैं, और स्याही से "जनता के हित" की बातें भी उछाली जा रही हैं?



राजनीतिक स्वार्थ की चाल में फंसती शहरी व्यवस्था

नागौर नगर परिषद इस वक्त दो ध्रुवों में बंटी है। एक ओर सत्ता में बनी रहने की जिद, दूसरी ओर सत्ता हथियाने की हड़बड़ी! बीच में अगर कोई वाकई पिस रहा है तो वो है शहर का आम नागरिक, जिसने ना तो कभी स्याही फेंकी, ना हंगामा किया, बस उम्मीद की कि कोई उसका नाला, सड़क, या लाइट  का मामला सुलझा देगा।


वक्त है जनता की आंखों में झांकने का, ना कि स्याही फेंकने का, अगर विरोध करना है, तो सदन में शब्दों से करो। अगर विकास की चिंता है, तो कार्य से दिखाओ। अगर ईमानदारी से राजनीति करनी है, तो सत्ता में रहने के दौरान भी सवाल उठाओ, सिर्फ जब कुर्सी छिन जाए, तब नहीं।

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

जुलाई 17, 2025

कांवड़ यात्रा: एक लोटा जल नहीं, करोड़ों दिलों की श्रद्धा है

कांवड़ यात्रा: एक लोटा जल नहीं, करोड़ों दिलों की श्रद्धा है


हर साल सावन आते ही देश की सड़कों पर केसरिया लहराने लगती है। नंगे पांव चलते, डमरू की धुन पर झूमते, हर हर महादेव के उद्घोष के साथ हज़ारों-लाखों कांवड़िए दिखते हैं। कोई उत्तर प्रदेश से, कोई राजस्थान से, कोई हरियाणा से। कोई मजदूर है, कोई छात्र, कोई बेरोज़गार, कोई नौकरीपेशा। इन सबके कंधे पर एक ‘कांवड़’ टंगी होती है। लेकिन असल में वह कांवड़ नहीं, उनकी श्रद्धा होती है।


लेकिन ज्ञान बांटने वालों की कमी कहां है?



हाल ही में कई लोगों ने सोशल मीडिया पर यह ज्ञान परोस दिया कि कांवड़ केवल गरीब व बेरोजगार युवा उठाते हैं। धर्म को रोजगार से जोड़ दो तो देश खुशहाल हो जाएगा। एक लोटा जल पास के शिवालय में चढ़ा दो, उतना ही फल मिलेगा। ये यात्रा केवल मन को भरमाती है, भोलेनाथ को नहीं। पहली नजर में यह बात ‘विचारशील’ लग सकती है, लेकिन असल में यह टिप्पणी ना केवल संवेदनहीन है, बल्कि शहर के ड्रॉइंग रूम में बैठकर गांव-देहात की भावनाओं पर ठहाका लगाने जैसी है।


 क्या आस्था की कोई आर्थिक हैसियत होती है?


कांवड़ उठाने वाला अगर बेरोज़गार है, तो यह कहना कि उसकी आस्था ग़लत है, क्या यह वैसा ही नहीं जैसे कोई भूखा आदमी मंदिर जाए और आप कहें कि पहले रोटी खा, फिर भगवान देख? यह वर्गभेद है, और उससे भी ज़्यादा श्रद्धा की अवमानना है। क्या आपने कभी यह सवाल उठाया कि VIP श्रद्धालु चार्टर्ड प्लेन से जाते हैं, सोने का मुकुट चढ़ाते हैं, तो क्या भगवान तभी प्रसन्न होते हैं? नहीं! धर्म, दौलत नहीं देखता, मन की धड़कन देखता है।


कांवड़ यात्रा कोई धार्मिक तमाशा नहीं


कांवड़ यात्रा भारत की उन चंद परंपराओं में से है जो खुद से बड़ा कुछ करने की भावना देती है। कोई भी इसे जबरदस्ती नहीं करता। न सरकार आदेश देती है, न कोई NGO पैकेज ऑफर करता है।

लाखों लोग खुद को तपाकर सैकड़ो किलोमीटर की यात्रा पर निकलते हैं। कोई ढोल बजाकर सेवा करता है, कोई रास्ते में ORS और जलेबी बांटता है। कोई छोटा बच्चा रास्ते में खड़े होकर “बोल बम” चिल्लाता है। क्या ये सब बेरोजगारी का प्रदर्शन है? या यह समाज का वह चेहरा है जो बिना किसी लोभ के, बिना किसी धार्मिक हिंसा के, प्रेम और निष्ठा से जुड़ा होता है?


धर्म को रोजगार से मत जोड़िए, सेवा से जोड़िए


जिसने कहा धर्म को रोजगार से जोड़ दो वो शायद भूल गया कि इस देश में धर्म रोजगार से नहीं, सेवा से जुड़ा है। कांवड़ यात्रा का हर दिन हज़ारों लोगों को सेवा का अवसर देता है। युवाओं को नशे से दूर, शरीर को संयम में और मन को अनुशासन में रखने का माध्यम बनता है। अगर सरकार चाहे तो इस यात्रा को सामूहिक मानसिक स्वास्थ्य अभियान या ड्रग-डि-एडिक्शन मूवमेंट की तरह भी प्रमोट कर सकती है लेकिन अफसोस, यहां कुछ लोग इसे बेरोजगारों का भ्रम कहकर खत्म करना चाहते हैं।


एक लोटा जल से ज्यादा जरूरी है एक भरपूर नजरिया


जिसे यह लगता है कि कांवड़ से कुछ नहीं होता, एक लोटा जल शिवालय में चढ़ा दो, उसे समझना चाहिए कि कांवड़ उठाना केवल जल चढ़ाने का कर्मकांड नहीं, एक आत्मिक अनुभव है। वो जल प्रतीक है उस समर्पण का जो इंसान शिव के आगे अर्पण करता है और उस यात्रा में वो खुद को तलाशता है। कांवड़ का रास्ता शिव तक नहीं, स्वयं तक जाता है।




अंत में: श्रद्धा को ना नापिए, ना तौलिए


आप कांवड़ यात्रा से सहमत न हों, यह आपका अधिकार है।लेकिन उसे नीचा दिखाना, श्रद्धा पर प्रश्नचिह्न लगाना, और गरीबों की आस्था को ‘बेरोजगारी का उत्सव’ कह देना यह उस भारत की आत्मा पर चोट है जो आज भी मंदिर की घंटियों में चैन ढूंढता है।कांवड़ केवल एक लोटा जल नहीं, करोड़ों दिलों की पुकार है। जो इसे नहीं समझे, उसे आलोचना नहीं। कुछ समय अकेले यात्रा करने की जरूरत है। शायद तब उसे ‘शिव’ भी मिल जाएं और ‘स्वयं’ भी।

शुक्रवार, 27 जून 2025

जून 27, 2025

अविश्वास का पटाक्षेप: 47 का दावा... 2 की हाज़िरी! कौन किसे बेवकूफ बना रहा था?

अविश्वास का पटाक्षेप: 47 का दावा... 2 की हाज़िरी! कौन किसे बेवकूफ बना रहा था? जहां राजनीति बोली.. 'मैं पहले ही कह चुका था!'



तो आखिरकार वही हुआ जो होना था, और जो Primo Post ने दो सप्ताह पहले अपनी कलम से साफ-साफ कह दिया था। अविश्वास प्रस्ताव गिर गया।और गिरा भी ऐसा कि उसमें उठने की भी गुंजाइश नहीं रही। आज सुबह 10 बजे से 11 बजे तक आयोजित हुई अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा की बैठक। 60 में से निर्वाचित पार्षदों की जो अनिवार्य उपस्थिति होनी थी उसमें उपस्थित हुए केवल दो। बाकी? कहीं नहीं।



जिन 47 पार्षदों के नाम पर राजनीति की पूरी लकीर खींची जा रही थी, वो खुद लकीर के बाहर नजर आए।और इस अनुपस्थिति के साथ ही अविश्वास प्रस्ताव सिर्फ़ एक काग़ज़ रह गया। वो काग़ज़ जो सत्ता के सामने फड़फड़ाया भी नहीं।


क्या यह अचानक हुआ? बिल्कुल नहीं।

Primo Post ने पहले ही संकेत दे दिया था कि बाड़ेबंदी में भरोसे की दीवारें दरक रही हैं' और 'बाड़ेबंदी एक जुआ है, आर या पार!' लेकिन जिनके पास पार्षदों की गिनती थी, उनके पास समर्पण की मानसिकता नहीं थी। सत्ता पक्ष के पार्षद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मदन राठौड़ से मिले, और उस बैठक के बाद ही सब कुछ तय हो गया था। लेकिन विपक्ष शायद तब भी गिनती में उलझा हुआ था गणित में नहीं, ग़लतफहमी में।


सभापति ने निकाला विजय जुलूस और लोकतंत्र ने देखा कि चुप रहकर भी जीत हासिल की जा सकती है। जब पूरा विपक्ष आरोपों और आक्रोश में शब्द खर्च कर रहा था, तब सत्ता पक्ष चुपचाप शब्दों की थकान देख रहा था। और आज, उसी मौन की जीत हुई। क्योंकि उपस्थिति साबित करने की ज़रूरत नहीं पड़ी,



अनुपस्थिति ही पर्याप्त हो गई।सभापति, जिन पर तमाम आरोप थे, जिनके खिलाफ बगावत की हवा बनाई गई थी, आज उसी हवा को चीरते हुए विजय जुलूस में शामिल हुईं मुस्कुराती हुईं, नाचती हुईं।राजनीति में समय सबसे बड़ा रणनीतिकार होता है। जिन्होंने अविश्वास की नींव रखी थी, शायद उन्हें खुद अपने दल का विश्वास नहीं रहा।कुछ सत्ता से डरे, कुछ दुविधा में पड़े,



और कुछ ऐसे थे जो विरोध सिर्फ़ इसलिए कर रहे थे कि उन्हें विरोध करना आता था।Primo Post के पिछले कॉलमों में जो अनुमान थे वे आज परिणाम बनकर सामने आए।



राजनीति में भविष्यवाणी नहीं, फ़ील्ड विज़न काम आता है। 

जिसे विपक्ष सत्ता की पराजय समझ रहा था, वो भाजपा के लिए मात्र एक गणना थी कि किसे कब चुप कराना है, और किसे कब बोलने देना है।अविश्वास प्रस्ताव गिरा, लेकिन इसके साथ यह भी साफ हो गया कि राजनीति में संख्या नहीं, समय और संकल्प ज़्यादा निर्णायक होते हैं।


Primo Post जहाँ खबरें भविष्य बताने नहीं, भविष्य साबित करने के लिए लिखी जाती हैं।

शुक्रवार, 20 जून 2025

जून 20, 2025

एक डिनर की कीमत तुम क्या जानो पाकिस्तान वालों!

एक डिनर की कीमत तुम क्या जानो पाकिस्तान वालों!



जब मेज़ पर सिर्फ खाना न हो, बल्कि रणनीति परोसी जा रही हो तो हर निवाला सवाल बन जाता है, और हर तस्वीर सुर्खी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और पाकिस्तान आर्मी चीफ़ जनरल आसिम मुनीर के बीच हुआ हालिया डिनर, न तो कोई औपचारिक राज्य यात्रा थी, न ही कूटनीतिक मीटिंग का कोई आधिकारिक एजेंडा फिर भी, इस एक तस्वीर ने दुनिया के तमाम विश्लेषकों को चौंका दिया। ट्रंप मुस्कुरा रहे थे। मुनीर भी। लेकिन दोनों के चेहरे पर जो सबसे आम बात थी।वो था एक साझा उद्देश्य, जिसे अभी आधिकारिक शब्द नहीं मिले हैं मगर संकेत साफ हैं। डिनर की प्लेट में चुपचाप परोसी जा रही थी अमेरिका की ईरान नीति?



अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान अब भी ईरान की ओर हसरत भरी निगाहों से देखता है। तेल, सड़क, और रणनीतिक गहराई के लिहाज़ से। लेकिन ट्रंप भी वही हैं जिन्होंने बार-बार दिखाया है कि ईरान उनका पुराना इमोशनल शत्रु है, और राजनीतिक मोहरा भी। ऐसे में यह डिनर अचानक ही मध्य-पूर्व की नई बिसात बन गया। जहाँ ट्रंप ईरान के खिलाफ पाकिस्तान को एक सब-कॉन्ट्रैक्टेड रणनीतिक साझेदार की तरह देख सकते हैं। मुनीर को अमेरिका में बुलाना सिर्फ 'सम्मान' नहीं था, बल्कि शायद एक वार्म-अप मीटिंग थी। जिसमें तय किया जा रहा था कि आने वाले वक्त में पाकिस्तान कहां खड़ा होगा, जब ट्रंप और ईरान आमने-सामने होंगे।



पाकिस्तान की स्थिति: भूखा पेट, मगर बड़े-बड़े वादों के साथ

Imf के सामने कर्ज़ के लिए घुटनों पर खड़ा मुल्क, अपने प्रधानमंत्री को छोड़, सेना प्रमुख को कूटनीतिक मोर्चे पर आगे कर रहा है, क्योंकि वहां जानते हैं कि जहां रोटी नहीं मिलती, वहां मोहरे बनना पड़ता है। ट्रंप का ये डिनर शायद वही सौदा था जहाँ ईरान के खिलाफ एक पजामा-पहने सैनिक को सूट में सजाकर पेश किया गया।


भारत के लिए सबक क्या है?


भारत इस पूरी स्थिति को सिर्फ कूटनीतिक मनोरंजन की तरह नहीं देख सकता। पाकिस्तान-ईरान-अमेरिका की कोई भी नज़दीकी या सौदेबाज़ी, सीधे हमारे पश्चिमी सीमा समीकरणों को प्रभावित करती है। लेकिन भारत जानता है कि ट्रंप जैसे नेता स्थिरता नहीं, सौदा चाहते हैं। पाकिस्तान की हालत ऐसी है कि जो सौदा सस्ता हो, वो चाहे आत्मसम्मान का हो या संप्रभुता का वो भी कर लिया जाएगा।



सही मायने में यह सिर्फ एक डिनर नहीं था, यह पाकिस्तान के लिए अमेरिकी एजेंडे में घुल जाने का पहला कोर्स था। ट्रंप जानते हैं कि ईरान पर दबाव बनाने के लिए उनके पास हथियार हैं, लेकिन ज़मीन पर खेल खेलने वाले ‘मोहरों’ की जरूरत है। और पाकिस्तान, हमेशा की तरह, खुद को उसी के लिए उपलब्ध दिखा रहा है। आखिर, जब देश की विदेश नीति रावलपिंडी की कैंटीन में तैयार होती हो तो व्हाइट हाउस की टेबल पर बैठना कोई बड़ी जीत नहीं, एक बहुत बड़ा इशारा होता है तुम अब हमारे साथ हो, हमारे लिए हो।

गुरुवार, 19 जून 2025

जून 19, 2025

ज़िंदगी की पटरी से उतरते लोग और हम सब एक तरफ खड़े तमाशबीन!

ज़िंदगी की पटरी से उतरते लोग और हम सब एक तरफ खड़े तमाशबीन!



18 जून की सुबह और रात नागौर के रेल ट्रैक से दो खबरें गुज़रीं। दो जानें, दो फैसले, और एक शहर, जो कुछ पल को स्तब्ध हुआ और फिर रोज़मर्रा की रफ्तार में लौट गया। किसी ने कहा, "बहुत दुखद", किसी ने जोड़ा, "अब क्या करें..." लेकिन शायद किसी ने रुककर नहीं पूछा कि क्यों किया? उनके इस कदम ने समाज के सामने एक बार फिर वो आईना रख दिया है जिसमें हम सब की चुप्पी, असंवेदनशीलता और व्यस्तता स्पष्ट दिखती है। क्या अब ज़िंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि उसे एक ट्रेन की आवाज़ के साथ कुचल देना आसान लगने लगा है?



आज हम उस दौर में पहुंच चुके हैं जहाँ लोग ज़िंदगी से हार नहीं रहे, हम उन्हें हारने दे रहे हैं। कभी भावनात्मक टूटन, कभी पारिवारिक कलह, कभी आर्थिक दबाव। हर आत्महत्या की वजह अलग हो सकती है, लेकिन हर कहानी में एक चीज़ समान होती है और वो अकेलापन है। समाज में हम बात करते हैं आत्महत्या पर रोक की, पर हम रोकते किसे हैं? हमने अपने आसपास कितनों को सुना? कितनों के कंधे पर हाथ रखा?



किसी ने कहा कि थक गया हूँ और हमने जवाब में क्या दिया? "इतना भी क्या हो गया, सब झेलते हैं…" यही 'सब' दरअसल सबसे खतरनाक शब्द है, क्योंकि ये व्यक्ति को यह यकीन दिला देता है कि उसका दुख कोई मायने नहीं रखता। सवाल ये नहीं है कि क्यों दो लोगों ने ट्रेन के आगे जान दी।



सवाल यह है कि क्या हमने उन्हें कभी यह एहसास कराया था कि वो अकेले नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी व्यस्तता ने उनकी चुप्पी को और गहरा बना दिया? आत्महत्या कायरता नहीं है, यह एक थकी हुई चेतना का आखिरी चुप संवाद है, जो बोल नहीं पाती और इसलिए चुपचाप चली जाती है।


लेकिन असली कायरता शायद हमारी है, जो पास होते हुए भी कुछ नहीं कर पाते, जो पहचान होते हुए भी पहचानने से चूक जाते हैं। हमारा समाज अब हिम्मत का नहीं, ‘लाइक्स’ और ‘स्टेटस’ का समाज बन गया है। यहाँ लोग ज़िंदा रहने की नहीं, दिखने की लड़ाई लड़ रहे हैं।



किसी को सलाह देने में हम तेज़ हैं, लेकिन साथ देने में थके हुए। किसी को टूटता देखना अब खबर नहीं रहा बल्कि यह रूटीन बनता जा रहा है। यह रूटीन तब तक टूटेगा नहीं, जब तक हम हर टूटने वाले के पास रुककर यह न कहें कि मैं सुन रहा हूँ, तुम अकेले नहीं हो। इन दोनों आत्महत्याओं की रिपोर्ट दर्ज हो गई होगी, पोस्टमार्टम भी पूरा हो गया होगा, रेलवे ट्रैक भी साफ हो गया होगा... लेकिन क्या हमारा ज़मीर भी साफ है?



ज़रा सोचिए, कल आपके घर का, मोहल्ले का या सोशल मीडिया लिस्ट का कोई चुप इंसान कहीं बिना कुछ कहे गुम हो जाए तो क्या आप कह पाएंगे कि आपने उसे कभी रोकने की कोशिश की थी? मौत कभी समाधान नहीं होती। मगर हां, हमारी चुप्पी किसी की मौत का कारण ज़रूर बन सकती है।

बुधवार, 18 जून 2025

जून 18, 2025

कूटनीति के फॉर्मेट में विपक्ष की सियासत फिट नहीं होती!

कूटनीति के फॉर्मेट में विपक्ष की सियासत फिट नहीं होती!


मोदी और ट्रंप के बीच 35 मिनट की बातचीत क्या हुई  यह अब राजनैतिक बहस का नहीं, राजनीति का तमाशा बनता जा रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने सरकार से पूछ लिया "क्या बात हुई, विस्तार से बताया जाए। सर्वदलीय बैठक बुलाओ। विपक्ष को भरोसे में लो।" यह मांग सुनने में लोकतांत्रिक लग सकती है, लेकिन जब बात अंतरराष्ट्रीय मंचों और कूटनीति की हो, तो विपक्ष की यह ‘जिज्ञासा’ ज्यादा नहीं, बेअक्ली की हद तक जाती है।




राजनीति में सब कुछ बताया नहीं जाता, कूटनीति में बहुत कुछ छुपाया भी जाता है। 

दुनिया के किसी देश में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति स्तर की कूटनीतिक बातचीत को पब्लिक डोमेन में इस तरह खोलने की परंपरा नहीं है। क्यों? क्योंकि कूटनीति में हर शब्द का मतलब होता है, और हर चुप्पी का भी।


विपक्ष की यह अपेक्षा कि "ट्रंप और मोदी की बातचीत का पूरा ब्यौरा साझा किया जाए ना सिर्फ राजनयिक अनुशासन के विरुद्ध है, बल्कि यह संकेत भी देता है कि या तो उन्हें कूटनीति की समझ नहीं है, या फिर देशहित से ऊपर राजनीति आ गई है।




सिर्फ पूछने के लिए सवाल मत पूछिए, जबाबदेही की मर्यादा भी समझिए


अंतरराष्ट्रीय संबंध कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं होते, जहाँ हर सवाल का उत्तर तुरंत और सार्वजनिक मिले। यह कई परतों वाला संवाद होता है, जहाँ कुछ शब्द भविष्य की ज़मीन तैयार करते हैं और कुछ चुप्पियाँ बहुत कुछ कह जाती हैं। विपक्ष जब इस पर प्रश्न खड़ा करता है,तो वह सरकार को नहीं, देश की विदेश नीति की साख को चुनौती देता है। क्या कांग्रेस चाहती है कि अमेरिका, चीन या पाकिस्तान इस बहस को यह कहकर इस्तेमाल करें: "भारत में खुद की सरकार पर भरोसा नहीं है, फिर हम भरोसा क्यों करें?"



ट्रंप कोई अदालत नहीं, न ही भारत कोई आरोपी है


कांग्रेस यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि सरकार कुछ छुपा रही है, कोई सौदा कर रही है।" यह वही पार्टी है जो अतीत में पाकिस्तान को बिरयानी भेजती रही, और अब ट्रंप की 35 मिनट की बातचीत को लोकतंत्र का टेस्ट बना रही है। सवाल यह नहीं है कि क्या बात हुई, सवाल यह है कि क्या विपक्ष को अंतरराष्ट्रीय गरिमा का ध्यान है?



भारत की विदेश नीति संप्रभुता, स्थिरता और संप्रेषण की नींव पर टिकी है। उस पर पार्टी विशेष का टेम्पलेट लगाना राजनीतिक अपरिपक्वता है। विपक्ष को चाहिए कि वह आंतरिक राजनीति में जितनी उग्रता दिखाए, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उतनी ही गरिमा भी बरते। वरना अगली बार कोई भी राष्ट्रप्रमुख भारत से बात करने से पहले पूछेगा कि "आपके विपक्ष को भी भरोसा है क्या?"

शुक्रवार, 13 जून 2025

जून 13, 2025

क्या बाड़ेबंदी में भरोसे की दीवारें दरक रही हैं? या इस बार सभापति को हटाकर दर्ज कराएंगे इतिहास..

क्या बाड़ेबंदी में भरोसे की दीवारें दरक रही हैं? या इस बार सभापति को हटाकर दर्ज कराएंगे इतिहास..


नगर परिषद, नागौर, जहाँ पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक अस्थिरता अनकही सरगोशियों में पल रही थी, वहाँ अब हालात बेकाबू घटनाओं की शक्ल में सामने आ चुके हैं। 60 सदस्यीय परिषद में 47 पार्षदों द्वारा सभापति के विरुद्ध लाया गया अविश्वास प्रस्ताव इस बात का संकेत है कि अब शब्दों से आगे बढ़कर सियासत ने सीधे एक्शन मोड अख्तियार कर लिया है। लेकिन क्या यह संख्या अंत तक टिकेगी? क्या सत्ता पक्ष की रणनीति से विपक्षी एकता दरक सकती है? या यह बाड़ेबंदी असल में एक सामूहिक संकल्प की परीक्षा है?




27 जून: वोटिंग से पहले की लंबी रातें


जिला प्रशासन ने प्रस्ताव पर चर्चा के लिए 27 जून की तिथि निर्धारित की है। यह 15 दिन का अंतराल ही वह समय है जिसे लेकर राजनीतिक हलकों में हलचल है।इतना वक्त विरोधी खेमे के लिए जितना सोचने का, उससे कहीं ज्यादा सत्ता पक्ष के लिए तोड़फोड़ करने का अवसर है। सूत्रों के मुताबिक, बाड़ेबंदी में अभी लगभग 40 पार्षद ही मौजूद हैं। कुछ की अनुपस्थिति ने स्वाभाविक संदेहों को जन्म दिया है। क्या टूट शुरू हो चुकी है? लेकिन विपक्षी खेमे के भीतर से मिली असली जानकारी, जो तस्वीर को पूरी तरह से पलट देती है।


बाड़ेबंदी या भरोसे की बुनियाद?


Primo Post को विपक्षी पार्षद खेमे के एक विश्वस्त सूत्र ने बताया है: "हम टूटने नहीं आए, तय करने आए हैं। सब अपनी मर्जी से यहीं हैं। कोई जबरदस्ती नहीं बल्कि पूरी रणनीति और लक्ष्य की स्पष्टता है। हम चाहते हैं कि सभापति को हटाने का निर्णय इतिहास में दर्ज हो और ये भी साफ लिखा जाए कि यह फैसला पार्षदों की सामूहिक चेतना का नतीजा था।" उनके अनुसार: सभी पार्षद संपर्क में हैं, फोन ऑन हैं और कुछ पार्षद तो वहीं रहकर सत्ता पक्ष के भीतर सेंध लगाने की कोशिश में भी जुटे हैं। यानी यह बाड़ेबंदी महज़ आत्मरक्षा नहीं, बल्कि सक्रिय रणनीतिक गतिविधि का केंद्र बन चुकी है।


सब्सीट्यूट सभापति: संभावित चाल


राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा भी जोर पकड़ रही है कि DLB यानी नगर निकाय निदेशालय से वोटिंग के दिन सभापति को कार्यमुक्त कर कोई ‘कार्यवाहक सभापति’ नियुक्त किया जा सकता है। अगर यह चाल चली जाती है तो


1. विपक्षी एकता को नैतिक भ्रम में डाला जा सकता है,

2. किसी असंतुष्ट भाजपा पार्षद को कार्यवाहक बनाकर उसके जरिए खेमा तोड़ने की रणनीति पर काम हो सकता है।

यह ‘कुर्सी का मोह’ और ‘मान-सम्मान की तस्करी’ सत्ता पक्ष की परंपरागत शैली है, जिससे पार्षद बखूबी वाकिफ हैं।


सभापति का डांस वीडियो: प्रतीकों की राजनीति


इसी सब के बीच, सभापति का एक सार्वजनिक कार्यक्रम में डांस करते हुए वीडियो वायरल हुआ था। राजनीतिक प्रतीकों में यह वीडियो कोई साधारण दृश्य नहीं था यह या तो अति-आत्मविश्वास था, या जनभावनाओं से पूरी तरह विच्छिन्न सत्ता की एक झलक।


 राजनीतिक लड़ाई अब गिनती की नहीं, गरिमा की है

अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह संघर्ष केवल सभापति को हटाने का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गरिमा और पार्षदों की सामूहिक इच्छाशक्ति को साबित करने का संग्राम बन चुका है।27 जून को नतीजा जो भी हो विपक्षी पार्षदों ने यह तय कर लिया है कि इस बार सत्ता का समीकरण वो नहीं, जनता तय करेगी।

बुधवार, 11 जून 2025

जून 11, 2025

"बाड़ेबंदी में बंद लोकतंत्र: 47 की ताक़त और फिर भी अनिश्चितता"

 "बाड़ेबंदी में बंद लोकतंत्र: 47 की ताक़त और फिर भी अनिश्चितता"


✍️ प्रवीण चौहान


नागौर नगर परिषद की राजनीति इन दिनों लोकतांत्रिक संकट के दौर से गुजर रही है। हालात इतने विस्फोटक हैं कि 47 पार्षदों ने मिलकर महिला सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव दाखिल कर दिया है, जो कि परिषद के कुल 60 पार्षदों में दो-तिहाई बहुमत से भी अधिक है। फिर भी सियासी गलियारों में कोई भी इस प्रस्ताव के पार हो जाने की गारंटी नहीं दे पा रहा। क्यों?क्योंकि ये राजनीति है। और राजनीति में केवल संख्या ही नहीं, 'समय' और 'सत्ता' का भी बड़ा खेल होता है।

जिला कलेक्टर को अविश्वास प्रस्ताव सौंपते हुए पार्षद



वर्तमान सभापति सत्ता पक्ष से हैं और पद महिला आरक्षण के तहत है, इसलिए परोक्ष समर्थन सत्ता और प्रशासन, दोनों का ही बना रहना तय माना जा रहा है। ऐसे में बाड़े बंदी के बावजूद 90% आशंका जताई जा रही है कि कुछ पार्षद 'प्रशासनिक औपचारिकताओं' की आड़ में इधर से उधर किए जा सकते हैं। यह सब कुछ धीरे-धीरे और सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है।


बाड़ेबंदी कोई नई बात नहीं है, पर इसका स्थानीय राजनीति में प्रवेश इस बात का संकेत है कि अब नीचे तक लोकतंत्र में भरोसा कम और तिकड़म पर यकीन ज़्यादा हो चला है। अब सवाल यह नहीं रहा कि कौन सही है और कौन गलत, बल्कि यह है कि कौन कितना 'मैनेज' हो सकता है।


पार्षदों का कहना है कि पूरे कार्यकाल में सभापति ने संवादहीनता, पक्षपात और निर्णयों में पारदर्शिता की कमी रखी। लेकिन यह सवाल भी मौज़ूं है कि इतने साल तक सभी पार्षद चुप क्यों रहे? और अब जब कार्यकाल का अंतिम साल शेष है, तो यह 'ईमानदारी की जागृति' कहीं किसी बड़े राजनीतिक समीकरण का हिस्सा तो नहीं?


आगे क्या हो सकता है?

अगर प्रशासन अविश्वास प्रस्ताव पर समय से कार्रवाई नहीं करता या जानबूझकर देरी करता है तो बाड़ेबंदी खुद ही कमजोर पड़ सकती है। पार्षदों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और राजनीतिक दबावों का सामना करना पड़ सकता है। फोन कॉल, पारिवारिक दबाव, और 'विकास के नाम पर' भावनात्मक अपील- सब कुछ इस खेल का हिस्सा बनते हैं।


यह केवल नगर परिषद की लड़ाई नहीं है, यह पूरे लोकतंत्र की परीक्षा है, जहाँ संख्या, नीयत और रणनीति तीनों को एक साथ संतुलित करना होता है।


आज 47 पार्षद साथ हैं, लेकिन क्या कल भी होंगे? यही इस कथा का सबसे बड़ा क्लाइमैक्स है।

बुधवार, 29 जनवरी 2025

जनवरी 29, 2025

मजदूर डायरी के नाम पर दिनदहाड़े हुई लूट! मजदूरों के खून पसीने की कमाई आखिर कहां रखोगे?

मजदूर डायरी के नाम पर दिनदहाड़े हुई लूट!

मजदूरों के खून पसीने की कमाई आखिर कहां रखोगे?



नागौर। मंगलवार शाम 4:00 बजे एसपी बंगले के पीछे स्थित श्रम विभाग कार्यालय में काफी संख्या में मजदूरों की भीड़ हो हल्ला करती नजर आई। देखने पर माजरा समझ में आया कि बीकानेर के एक कथित एनजीओ के नाम से मजदूर डायरी बनाने के नाम पर धोखाधड़ी की गई। प्रत्येक मजदूर से ₹500 अवैध तरीके से वसूले गए। 


वसूली के लिए बाकायदा शहर की हर गली मोहल्ले में पिछले एक सप्ताह तक शिविर लगाया गया। पहले से ही बदनाम श्रम विभाग ने एनजीओ के प्रतिनिधियों को वसूले गए रुपए वापस करने का आदेश दिया। रुपए वापस देने की सूचना मिलते ही श्रमिकों की भीड़ लगातार बढ़ती गई। हालत बेकाबू हुए एनजीओ के प्रतिनिधि के पास पैसे खत्म हुए तो फरार हुआ। बात थाने तक पहुंची।


 शहर में एनजीओ द्वारा मजदूरों के साथ किया गया धोखाधड़ी का मामला बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। मजदूरों को मजदूर डायरी बनाने के नाम पर रुपए ठगना न केवल अनैतिक है, बल्कि यह उनके अधिकारों का भी उल्लंघन है।


मजदूरों की मेहनत और पसीने से कमाई गई राशि को ठगना उनके साथ अन्याय है। यह मामला न केवल एनजीओ की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह हमारे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनैतिकता को भी उजागर करता है।


इस मामले में पुलिस को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए और एनजीओ के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। साथ ही, मजदूरों को उनकी राशि वापस दिलाने के लिए भी प्रयास किए जाने चाहिए।


यह मामला हमें यह भी सोचने पर मजबूर करता है कि हमारे समाज में ऐसे लोगों को कैसे रोका जा सकता है जो गरीब और कमजोर लोगों को ठगते हैं। हमें अपने समाज में जागरूकता फैलाने की जरूरत है और ऐसे लोगों के खिलाफ खड़े होने की जरूरत है जो अनैतिक और अवैध गतिविधियों में शामिल हैं।

मंगलवार, 2 जुलाई 2024

जुलाई 02, 2024

नागौर शहर में मौत का पुलिया अब और कितनी जाने लगा? कार्रवाई होगी या फिर होगा नए हादसे का इंतजार!

नागौर शहर में मौत का पुलिया अब और कितनी जाने लगा? कार्रवाई होगी या फिर होगा नए हादसे का इंतजार!



नागौर। कल दिन भर में प्रदेश में हुए तीन हादसों ने आम आदमी को झकझोर दिया है। नागौर जिले में हुए दो हादसों में 6 लोगों की मौत और करौली हादसे में नौ लोगों की मृत्यु दुखद है। लेकिन नागौर शहर के खतरनाक पुलिया पर हुए हादसे की बात करें तो आम आदमी यही कह रहा है कि यह पुलिया मौत का पुलिया बन चुका है। इस पुलिया पर मात्र कुछ महीनो में ही पांचवा हादसा हुआ है। कल एक ही दिन में एक ही परिवार के चार जने मौत के मुंह में समा गए। 




  लगातार हादसों के बाद एनएच अथॉरिटी ने 30 किमी स्पीड का बोर्ड लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली है। यह पुलिया गलत तरीके से विभिन्न खामियों के साथ बनाया हुआ है। पूल के दोनों तरफ सर्विस रोड भी सही नहीं है। सर्विस रोड से पुलिया पर चढ़ने के लिए हर वाहन चालक को रिस्क उठानी पड़ रही है। जानकारी अनुसार कल के हादसे में मोटरसाइकिल सवार भी रेलवे फाटक बंद होने से सर्विस रोड पर आकर पुलिए पर चढ़ रहा था।

 


दूसरी और बस संचालक ज्यादा से ज्यादा सवारियां बटोरने के चक्कर में स्पीड से कोई कंप्रोमाइज नहीं कर रहे हैं। कल का हादसा उसी का एक उदाहरण है, 30 की स्पीड वाले खतरनाक पुलिया पर लगभग 80 की स्पीड से अंधाधुन गाड़ी दौड़ा रहा था। जिसके कारण ही सामने आए मोटरसाइकिल को बचाने के लिए स्पीड कम नहीं कर पाया, और पांचौड़ी थाना क्षेत्र के गांव देऊ निवासी एक ही परिवार के शफी खां उनका पुत्र, पुत्रवधू और साली की मृत्यु हो गई। 



   यहां गौर करने वाली बात यह रही कि करीब 50 किलोमीटर दूर से आई दो सवारी की क्षमता वाली बाइक पर चार सवारियां बैठी? ट्रैफिक नियम अनुसार यह गलत है। बाइक चलाते वक्त हेलमेट पहनना जरूरी है और दो से ज्यादा सांवरिया नहीं हो। वाहन तेज स्पीड से नहीं चलना चाहिए। 



  दूसरी और नियमों का पालन करवाने वाले परिवहन विभाग व ट्रैफिक पुलिस की अनदेखी से बाइक, बस, कैंपर जीप आदि वाहनों में क्षमता से अधिक सवारियां धड़ल्ले से बैठाई जा रही है। हादसे रोकने के लिए इन पर तुरंत प्रभाव से कार्रवाई होनी चाहिए।