ज़िंदगी की पटरी से उतरते लोग और हम सब एक तरफ खड़े तमाशबीन!
18 जून की सुबह और रात नागौर के रेल ट्रैक से दो खबरें गुज़रीं। दो जानें, दो फैसले, और एक शहर, जो कुछ पल को स्तब्ध हुआ और फिर रोज़मर्रा की रफ्तार में लौट गया। किसी ने कहा, "बहुत दुखद", किसी ने जोड़ा, "अब क्या करें..." लेकिन शायद किसी ने रुककर नहीं पूछा कि क्यों किया? उनके इस कदम ने समाज के सामने एक बार फिर वो आईना रख दिया है जिसमें हम सब की चुप्पी, असंवेदनशीलता और व्यस्तता स्पष्ट दिखती है। क्या अब ज़िंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि उसे एक ट्रेन की आवाज़ के साथ कुचल देना आसान लगने लगा है?
आज हम उस दौर में पहुंच चुके हैं जहाँ लोग ज़िंदगी से हार नहीं रहे, हम उन्हें हारने दे रहे हैं। कभी भावनात्मक टूटन, कभी पारिवारिक कलह, कभी आर्थिक दबाव। हर आत्महत्या की वजह अलग हो सकती है, लेकिन हर कहानी में एक चीज़ समान होती है और वो अकेलापन है। समाज में हम बात करते हैं आत्महत्या पर रोक की, पर हम रोकते किसे हैं? हमने अपने आसपास कितनों को सुना? कितनों के कंधे पर हाथ रखा?
किसी ने कहा कि थक गया हूँ और हमने जवाब में क्या दिया? "इतना भी क्या हो गया, सब झेलते हैं…" यही 'सब' दरअसल सबसे खतरनाक शब्द है, क्योंकि ये व्यक्ति को यह यकीन दिला देता है कि उसका दुख कोई मायने नहीं रखता। सवाल ये नहीं है कि क्यों दो लोगों ने ट्रेन के आगे जान दी।
सवाल यह है कि क्या हमने उन्हें कभी यह एहसास कराया था कि वो अकेले नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी व्यस्तता ने उनकी चुप्पी को और गहरा बना दिया? आत्महत्या कायरता नहीं है, यह एक थकी हुई चेतना का आखिरी चुप संवाद है, जो बोल नहीं पाती और इसलिए चुपचाप चली जाती है।
लेकिन असली कायरता शायद हमारी है, जो पास होते हुए भी कुछ नहीं कर पाते, जो पहचान होते हुए भी पहचानने से चूक जाते हैं। हमारा समाज अब हिम्मत का नहीं, ‘लाइक्स’ और ‘स्टेटस’ का समाज बन गया है। यहाँ लोग ज़िंदा रहने की नहीं, दिखने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
किसी को सलाह देने में हम तेज़ हैं, लेकिन साथ देने में थके हुए। किसी को टूटता देखना अब खबर नहीं रहा बल्कि यह रूटीन बनता जा रहा है। यह रूटीन तब तक टूटेगा नहीं, जब तक हम हर टूटने वाले के पास रुककर यह न कहें कि मैं सुन रहा हूँ, तुम अकेले नहीं हो। इन दोनों आत्महत्याओं की रिपोर्ट दर्ज हो गई होगी, पोस्टमार्टम भी पूरा हो गया होगा, रेलवे ट्रैक भी साफ हो गया होगा... लेकिन क्या हमारा ज़मीर भी साफ है?
ज़रा सोचिए, कल आपके घर का, मोहल्ले का या सोशल मीडिया लिस्ट का कोई चुप इंसान कहीं बिना कुछ कहे गुम हो जाए तो क्या आप कह पाएंगे कि आपने उसे कभी रोकने की कोशिश की थी? मौत कभी समाधान नहीं होती। मगर हां, हमारी चुप्पी किसी की मौत का कारण ज़रूर बन सकती है।


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