"बाड़ेबंदी में बंद लोकतंत्र: 47 की ताक़त और फिर भी अनिश्चितता"
✍️ प्रवीण चौहान
नागौर नगर परिषद की राजनीति इन दिनों लोकतांत्रिक संकट के दौर से गुजर रही है। हालात इतने विस्फोटक हैं कि 47 पार्षदों ने मिलकर महिला सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव दाखिल कर दिया है, जो कि परिषद के कुल 60 पार्षदों में दो-तिहाई बहुमत से भी अधिक है। फिर भी सियासी गलियारों में कोई भी इस प्रस्ताव के पार हो जाने की गारंटी नहीं दे पा रहा। क्यों?क्योंकि ये राजनीति है। और राजनीति में केवल संख्या ही नहीं, 'समय' और 'सत्ता' का भी बड़ा खेल होता है।
जिला कलेक्टर को अविश्वास प्रस्ताव सौंपते हुए पार्षदवर्तमान सभापति सत्ता पक्ष से हैं और पद महिला आरक्षण के तहत है, इसलिए परोक्ष समर्थन सत्ता और प्रशासन, दोनों का ही बना रहना तय माना जा रहा है। ऐसे में बाड़े बंदी के बावजूद 90% आशंका जताई जा रही है कि कुछ पार्षद 'प्रशासनिक औपचारिकताओं' की आड़ में इधर से उधर किए जा सकते हैं। यह सब कुछ धीरे-धीरे और सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है।
बाड़ेबंदी कोई नई बात नहीं है, पर इसका स्थानीय राजनीति में प्रवेश इस बात का संकेत है कि अब नीचे तक लोकतंत्र में भरोसा कम और तिकड़म पर यकीन ज़्यादा हो चला है। अब सवाल यह नहीं रहा कि कौन सही है और कौन गलत, बल्कि यह है कि कौन कितना 'मैनेज' हो सकता है।
पार्षदों का कहना है कि पूरे कार्यकाल में सभापति ने संवादहीनता, पक्षपात और निर्णयों में पारदर्शिता की कमी रखी। लेकिन यह सवाल भी मौज़ूं है कि इतने साल तक सभी पार्षद चुप क्यों रहे? और अब जब कार्यकाल का अंतिम साल शेष है, तो यह 'ईमानदारी की जागृति' कहीं किसी बड़े राजनीतिक समीकरण का हिस्सा तो नहीं?
आगे क्या हो सकता है?
अगर प्रशासन अविश्वास प्रस्ताव पर समय से कार्रवाई नहीं करता या जानबूझकर देरी करता है तो बाड़ेबंदी खुद ही कमजोर पड़ सकती है। पार्षदों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और राजनीतिक दबावों का सामना करना पड़ सकता है। फोन कॉल, पारिवारिक दबाव, और 'विकास के नाम पर' भावनात्मक अपील- सब कुछ इस खेल का हिस्सा बनते हैं।
यह केवल नगर परिषद की लड़ाई नहीं है, यह पूरे लोकतंत्र की परीक्षा है, जहाँ संख्या, नीयत और रणनीति तीनों को एक साथ संतुलित करना होता है।
आज 47 पार्षद साथ हैं, लेकिन क्या कल भी होंगे? यही इस कथा का सबसे बड़ा क्लाइमैक्स है।


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