कांवड़ यात्रा: एक लोटा जल नहीं, करोड़ों दिलों की श्रद्धा है
हर साल सावन आते ही देश की सड़कों पर केसरिया लहराने लगती है। नंगे पांव चलते, डमरू की धुन पर झूमते, हर हर महादेव के उद्घोष के साथ हज़ारों-लाखों कांवड़िए दिखते हैं। कोई उत्तर प्रदेश से, कोई राजस्थान से, कोई हरियाणा से। कोई मजदूर है, कोई छात्र, कोई बेरोज़गार, कोई नौकरीपेशा। इन सबके कंधे पर एक ‘कांवड़’ टंगी होती है। लेकिन असल में वह कांवड़ नहीं, उनकी श्रद्धा होती है।
लेकिन ज्ञान बांटने वालों की कमी कहां है?
हाल ही में कई लोगों ने सोशल मीडिया पर यह ज्ञान परोस दिया कि कांवड़ केवल गरीब व बेरोजगार युवा उठाते हैं। धर्म को रोजगार से जोड़ दो तो देश खुशहाल हो जाएगा। एक लोटा जल पास के शिवालय में चढ़ा दो, उतना ही फल मिलेगा। ये यात्रा केवल मन को भरमाती है, भोलेनाथ को नहीं। पहली नजर में यह बात ‘विचारशील’ लग सकती है, लेकिन असल में यह टिप्पणी ना केवल संवेदनहीन है, बल्कि शहर के ड्रॉइंग रूम में बैठकर गांव-देहात की भावनाओं पर ठहाका लगाने जैसी है।
क्या आस्था की कोई आर्थिक हैसियत होती है?
कांवड़ उठाने वाला अगर बेरोज़गार है, तो यह कहना कि उसकी आस्था ग़लत है, क्या यह वैसा ही नहीं जैसे कोई भूखा आदमी मंदिर जाए और आप कहें कि पहले रोटी खा, फिर भगवान देख? यह वर्गभेद है, और उससे भी ज़्यादा श्रद्धा की अवमानना है। क्या आपने कभी यह सवाल उठाया कि VIP श्रद्धालु चार्टर्ड प्लेन से जाते हैं, सोने का मुकुट चढ़ाते हैं, तो क्या भगवान तभी प्रसन्न होते हैं? नहीं! धर्म, दौलत नहीं देखता, मन की धड़कन देखता है।
कांवड़ यात्रा कोई धार्मिक तमाशा नहीं
कांवड़ यात्रा भारत की उन चंद परंपराओं में से है जो खुद से बड़ा कुछ करने की भावना देती है। कोई भी इसे जबरदस्ती नहीं करता। न सरकार आदेश देती है, न कोई NGO पैकेज ऑफर करता है।
लाखों लोग खुद को तपाकर सैकड़ो किलोमीटर की यात्रा पर निकलते हैं। कोई ढोल बजाकर सेवा करता है, कोई रास्ते में ORS और जलेबी बांटता है। कोई छोटा बच्चा रास्ते में खड़े होकर “बोल बम” चिल्लाता है। क्या ये सब बेरोजगारी का प्रदर्शन है? या यह समाज का वह चेहरा है जो बिना किसी लोभ के, बिना किसी धार्मिक हिंसा के, प्रेम और निष्ठा से जुड़ा होता है?
धर्म को रोजगार से मत जोड़िए, सेवा से जोड़िए
जिसने कहा धर्म को रोजगार से जोड़ दो वो शायद भूल गया कि इस देश में धर्म रोजगार से नहीं, सेवा से जुड़ा है। कांवड़ यात्रा का हर दिन हज़ारों लोगों को सेवा का अवसर देता है। युवाओं को नशे से दूर, शरीर को संयम में और मन को अनुशासन में रखने का माध्यम बनता है। अगर सरकार चाहे तो इस यात्रा को सामूहिक मानसिक स्वास्थ्य अभियान या ड्रग-डि-एडिक्शन मूवमेंट की तरह भी प्रमोट कर सकती है लेकिन अफसोस, यहां कुछ लोग इसे बेरोजगारों का भ्रम कहकर खत्म करना चाहते हैं।
एक लोटा जल से ज्यादा जरूरी है एक भरपूर नजरिया
जिसे यह लगता है कि कांवड़ से कुछ नहीं होता, एक लोटा जल शिवालय में चढ़ा दो, उसे समझना चाहिए कि कांवड़ उठाना केवल जल चढ़ाने का कर्मकांड नहीं, एक आत्मिक अनुभव है। वो जल प्रतीक है उस समर्पण का जो इंसान शिव के आगे अर्पण करता है और उस यात्रा में वो खुद को तलाशता है। कांवड़ का रास्ता शिव तक नहीं, स्वयं तक जाता है।
अंत में: श्रद्धा को ना नापिए, ना तौलिए
आप कांवड़ यात्रा से सहमत न हों, यह आपका अधिकार है।लेकिन उसे नीचा दिखाना, श्रद्धा पर प्रश्नचिह्न लगाना, और गरीबों की आस्था को ‘बेरोजगारी का उत्सव’ कह देना यह उस भारत की आत्मा पर चोट है जो आज भी मंदिर की घंटियों में चैन ढूंढता है।कांवड़ केवल एक लोटा जल नहीं, करोड़ों दिलों की पुकार है। जो इसे नहीं समझे, उसे आलोचना नहीं। कुछ समय अकेले यात्रा करने की जरूरत है। शायद तब उसे ‘शिव’ भी मिल जाएं और ‘स्वयं’ भी।


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