कूटनीति के फॉर्मेट में विपक्ष की सियासत फिट नहीं होती!
मोदी और ट्रंप के बीच 35 मिनट की बातचीत क्या हुई यह अब राजनैतिक बहस का नहीं, राजनीति का तमाशा बनता जा रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने सरकार से पूछ लिया "क्या बात हुई, विस्तार से बताया जाए। सर्वदलीय बैठक बुलाओ। विपक्ष को भरोसे में लो।" यह मांग सुनने में लोकतांत्रिक लग सकती है, लेकिन जब बात अंतरराष्ट्रीय मंचों और कूटनीति की हो, तो विपक्ष की यह ‘जिज्ञासा’ ज्यादा नहीं, बेअक्ली की हद तक जाती है।
राजनीति में सब कुछ बताया नहीं जाता, कूटनीति में बहुत कुछ छुपाया भी जाता है।
दुनिया के किसी देश में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति स्तर की कूटनीतिक बातचीत को पब्लिक डोमेन में इस तरह खोलने की परंपरा नहीं है। क्यों? क्योंकि कूटनीति में हर शब्द का मतलब होता है, और हर चुप्पी का भी।
विपक्ष की यह अपेक्षा कि "ट्रंप और मोदी की बातचीत का पूरा ब्यौरा साझा किया जाए ना सिर्फ राजनयिक अनुशासन के विरुद्ध है, बल्कि यह संकेत भी देता है कि या तो उन्हें कूटनीति की समझ नहीं है, या फिर देशहित से ऊपर राजनीति आ गई है।
सिर्फ पूछने के लिए सवाल मत पूछिए, जबाबदेही की मर्यादा भी समझिए
अंतरराष्ट्रीय संबंध कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं होते, जहाँ हर सवाल का उत्तर तुरंत और सार्वजनिक मिले। यह कई परतों वाला संवाद होता है, जहाँ कुछ शब्द भविष्य की ज़मीन तैयार करते हैं और कुछ चुप्पियाँ बहुत कुछ कह जाती हैं। विपक्ष जब इस पर प्रश्न खड़ा करता है,तो वह सरकार को नहीं, देश की विदेश नीति की साख को चुनौती देता है। क्या कांग्रेस चाहती है कि अमेरिका, चीन या पाकिस्तान इस बहस को यह कहकर इस्तेमाल करें: "भारत में खुद की सरकार पर भरोसा नहीं है, फिर हम भरोसा क्यों करें?"
ट्रंप कोई अदालत नहीं, न ही भारत कोई आरोपी है
कांग्रेस यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि सरकार कुछ छुपा रही है, कोई सौदा कर रही है।" यह वही पार्टी है जो अतीत में पाकिस्तान को बिरयानी भेजती रही, और अब ट्रंप की 35 मिनट की बातचीत को लोकतंत्र का टेस्ट बना रही है। सवाल यह नहीं है कि क्या बात हुई, सवाल यह है कि क्या विपक्ष को अंतरराष्ट्रीय गरिमा का ध्यान है?
भारत की विदेश नीति संप्रभुता, स्थिरता और संप्रेषण की नींव पर टिकी है। उस पर पार्टी विशेष का टेम्पलेट लगाना राजनीतिक अपरिपक्वता है। विपक्ष को चाहिए कि वह आंतरिक राजनीति में जितनी उग्रता दिखाए, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उतनी ही गरिमा भी बरते। वरना अगली बार कोई भी राष्ट्रप्रमुख भारत से बात करने से पहले पूछेगा कि "आपके विपक्ष को भी भरोसा है क्या?"


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