क्या बाड़ेबंदी में भरोसे की दीवारें दरक रही हैं? या इस बार सभापति को हटाकर दर्ज कराएंगे इतिहास..
नगर परिषद, नागौर, जहाँ पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक अस्थिरता अनकही सरगोशियों में पल रही थी, वहाँ अब हालात बेकाबू घटनाओं की शक्ल में सामने आ चुके हैं। 60 सदस्यीय परिषद में 47 पार्षदों द्वारा सभापति के विरुद्ध लाया गया अविश्वास प्रस्ताव इस बात का संकेत है कि अब शब्दों से आगे बढ़कर सियासत ने सीधे एक्शन मोड अख्तियार कर लिया है। लेकिन क्या यह संख्या अंत तक टिकेगी? क्या सत्ता पक्ष की रणनीति से विपक्षी एकता दरक सकती है? या यह बाड़ेबंदी असल में एक सामूहिक संकल्प की परीक्षा है?
27 जून: वोटिंग से पहले की लंबी रातें
जिला प्रशासन ने प्रस्ताव पर चर्चा के लिए 27 जून की तिथि निर्धारित की है। यह 15 दिन का अंतराल ही वह समय है जिसे लेकर राजनीतिक हलकों में हलचल है।इतना वक्त विरोधी खेमे के लिए जितना सोचने का, उससे कहीं ज्यादा सत्ता पक्ष के लिए तोड़फोड़ करने का अवसर है। सूत्रों के मुताबिक, बाड़ेबंदी में अभी लगभग 40 पार्षद ही मौजूद हैं। कुछ की अनुपस्थिति ने स्वाभाविक संदेहों को जन्म दिया है। क्या टूट शुरू हो चुकी है? लेकिन विपक्षी खेमे के भीतर से मिली असली जानकारी, जो तस्वीर को पूरी तरह से पलट देती है।
बाड़ेबंदी या भरोसे की बुनियाद?
Primo Post को विपक्षी पार्षद खेमे के एक विश्वस्त सूत्र ने बताया है: "हम टूटने नहीं आए, तय करने आए हैं। सब अपनी मर्जी से यहीं हैं। कोई जबरदस्ती नहीं बल्कि पूरी रणनीति और लक्ष्य की स्पष्टता है। हम चाहते हैं कि सभापति को हटाने का निर्णय इतिहास में दर्ज हो और ये भी साफ लिखा जाए कि यह फैसला पार्षदों की सामूहिक चेतना का नतीजा था।" उनके अनुसार: सभी पार्षद संपर्क में हैं, फोन ऑन हैं और कुछ पार्षद तो वहीं रहकर सत्ता पक्ष के भीतर सेंध लगाने की कोशिश में भी जुटे हैं। यानी यह बाड़ेबंदी महज़ आत्मरक्षा नहीं, बल्कि सक्रिय रणनीतिक गतिविधि का केंद्र बन चुकी है।
सब्सीट्यूट सभापति: संभावित चाल
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा भी जोर पकड़ रही है कि DLB यानी नगर निकाय निदेशालय से वोटिंग के दिन सभापति को कार्यमुक्त कर कोई ‘कार्यवाहक सभापति’ नियुक्त किया जा सकता है। अगर यह चाल चली जाती है तो
1. विपक्षी एकता को नैतिक भ्रम में डाला जा सकता है,
2. किसी असंतुष्ट भाजपा पार्षद को कार्यवाहक बनाकर उसके जरिए खेमा तोड़ने की रणनीति पर काम हो सकता है।
यह ‘कुर्सी का मोह’ और ‘मान-सम्मान की तस्करी’ सत्ता पक्ष की परंपरागत शैली है, जिससे पार्षद बखूबी वाकिफ हैं।
सभापति का डांस वीडियो: प्रतीकों की राजनीति
इसी सब के बीच, सभापति का एक सार्वजनिक कार्यक्रम में डांस करते हुए वीडियो वायरल हुआ था। राजनीतिक प्रतीकों में यह वीडियो कोई साधारण दृश्य नहीं था यह या तो अति-आत्मविश्वास था, या जनभावनाओं से पूरी तरह विच्छिन्न सत्ता की एक झलक।
राजनीतिक लड़ाई अब गिनती की नहीं, गरिमा की है
अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह संघर्ष केवल सभापति को हटाने का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गरिमा और पार्षदों की सामूहिक इच्छाशक्ति को साबित करने का संग्राम बन चुका है।27 जून को नतीजा जो भी हो विपक्षी पार्षदों ने यह तय कर लिया है कि इस बार सत्ता का समीकरण वो नहीं, जनता तय करेगी।


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